Jal Rahin Hain

जल रही है चीता
साँसों मैं हैं धुवा
फिर भी आस मन में हैं जगी
भोर होगी क्या कभी यहाँ
पूछती यही ये बेड़ियाँ
देख तो कौन है ये

महिष्मति साम्राज्यम
सर्वोत्तम प्रचेयम
दसो दिशाएं आठेयम
सब इसको करते प्रणाम

खुशहाली वैभवशाली
समृधियाँ निराली

धन्य-धन्य है यहाँ प्रजा
शांति का ये स्वर्ग था

घन गरज जो कितके यहाँ
दिग दिगंत में है कहाँ
शीश तो यहाँ झुका ज़रा
यशास्वीनी है ये धरा

महिष्मति की पताका
सदा यूँही गगन चूमे
अश्व्दो और सूर्यदेव मिलके
स्वर्ग सिंघासन विराजे



Credits
Writer(s): Manoj Muntashir, M.m. Kreem
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