Bheed

उड़ती धुलों का एक कतरा
बेख़बर सा बिखरा-बिखरा
एक सीपी में जा के उतरा
हालातों ने कुछ यूँ तराशा

देख मासूम सी ये हलचल
हर कोई हो रहा हैं क़ायल
आँखें मूँदें चले है बेकल
एक कशिश सी खींचे उसी ओर

हो, जुड़ रही भीड़ सी उसको क्या
इसको क्या, किसको क्या पता
जुड़ रही भीड़ सी खोए-खोए से हैं सब यहाँ

चेहरे जाने से, थोड़े अनजाने से
आँखों से, बातों से करते गुमाँ
रास्ते पुराने से, खो गएँ ज़माने से
मिल गएँ, जुड़ गएँ, बन गया निशाँ

खिल रही धूप सी, चढ़ रही है, बढ़ रही भोली सी दास्ताँ
बढ़ गया साँसों में जागता पैरों के आसमाँ
उड़ रही धूल सी, आँख खोले सोए सब यहाँ
जुड़ रही भीड़ सी इसको क्या, उसको क्या पता



Credits
Writer(s): Siddhant Mathur, Abhishek Dubey
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