Kabhi Ae Haqeeqat-E-Muntazir

कभी, ऐ हक़ीक़त-ए-मुंतज़र, नज़र आ लिबास-ए-मजाज़ में
(कभी, ऐ हक़ीक़त-ए-मुंतज़र, नज़र आ लिबास-ए-मजाज़ में)
कि हज़ारों सज्दे तड़प रहे हैं मेरी जबीन-ए-नियाज़ में
(कभी, ऐ हक़ीक़त-ए-मुंतज़र...)

ना बचा-बचा के तू रख इसे...
ना बचा-बचा के तू रख इसे, तेरा आइना है वो आइना
तेरा आइना है वो आइना, आइना, आइना
ना बचा-बचा के तू रख इसे...
(ना बचा-बचा के तू रख इसे, तेरा आइना है वो आइना, आइना, आइना)
तेरा आइना है वो आइना

कि शिकस्ता हो तो अज़ीज़-तर है निगाह-ए-आइना-साज़ में
कि शिकस्ता हो तो अज़ीज़-तर है निगाह-ए-आइना-साज़ में
(कभी, ऐ हक़ीक़त-ए-मुंतज़र, नज़र आ लिबास-ए-मजाज़ में)
(कभी, ऐ हक़ीक़त-ए-मुंतज़र...)

ना वो इश्क़ में रहीं गर्मियाँ, ना वो हुस्न में रहीं शोख़ियाँ
(ना वो इश्क़ में रहीं गर्मियाँ, ना वो हुस्न में रहीं शोख़ियाँ, शोख़ियाँ, शोख़ियाँ)
ना वो इश्क़ में रहीं गर्मियाँ, ना वो हुस्न में रहीं शोख़ियाँ

ना वो ग़ज़नवी में तड़प रही, ना वो ख़म है ज़ुल्फ़-ए-आयाज़ में
ना वो ग़ज़नवी में तड़प रही, ना वो ख़म है ज़ुल्फ़-ए-आयाज़ में
(कभी, ऐ हक़ीक़त-ए-मुंतज़र, नज़र आ लिबास-ए-मजाज़ में)
(कभी, ऐ हक़ीक़त-ए-मुंतज़र...)

मैं जो सर-ब-सज्दा कभी हुआ तो ज़मीं से आने लगी सदा
(हो, मैं जो सर-ब-सज्दा कभी हुआ तो ज़मीं से आने लगी सदा)
(आने लगी सदा, आने लगी सदा)
मैं जो सर-ब-सज्दा कभी हुआ तो ज़मीं से आने लगी सदा

तेरा दिल तो है सनम-आश्ना, तुझे क्या मिलेगा नमाज़ में?
तेरा दिल तो है सनम-आश्ना, तुझे क्या मिलेगा नमाज़ में?
कभी, ऐ हक़ीक़त-ए-मुंतज़र...

(कभी, ऐ हक़ीक़त-ए-मुंतज़र, नज़र आ लिबास-ए-मजाज़ में)
नज़र आ, नज़र आ, नज़र आ लिबास-ए-मजाज़ में
कि हज़ारों सज्दे तड़प रहे हैं मेरी जबीन-ए-नियाज़ में
(कभी, ऐ हक़ीक़त-ए-मुंतज़र...)



Credits
Writer(s): Madan Mohan, Dr Iqbal
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