Safed Kash

कुछ जलाती, कुछ बुझाती (बुझाती)
कौन जाने क्या है बाक़ी (बाक़ी)

उड़ रहे हैं धुँआ बन के
जल गए हैं ख़्वाब काफ़ी

एक थी ख़ामोशी, एक रुआँ सा राग़ भी (राग़ भी)
और बची तो ख़ाक थोड़ी बाक़ी

जो मिला वो फूँक जाती (जाती)
कौन जाने क्या है बाक़ी

होंठ से दो कश लिए
गुम हुए तो हँस लिए
लगे है थोड़ी सी निराली रे (निराली)
ज़िंदगी निराली, रे

खोलती बाँहें और बुलाती राह भी
चल पड़े हैं जहाँ भी ले जाती

कुछ जलाती, कुछ बुझाती
कौन जाने क्या है बाक़ी



Credits
Writer(s): Anurag Saikia, Avinash Chouhan
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